मिथिला में राम खेले होली, मिथिला में राम खेले होली.... होली की खुमारी छाई हुई है...कहीं गुलाल उड़ रहा है तो कहीं रंग...मालपुआ खाकर, गाल गुलाबी कर, हाथों में रंग लेकर निकल पड़ी है रंग खेलने वालों की टोली ।
कहीं छोटे बच्चों का गैंग है, तो कहीं पुरुषों की टोली । कहीं लड़कियां और महिलाएं एक दूसरे को रंगों से भिगो रही हैं । कुछ ऐसा ही नजारा बिहार के हर गांव में होता है । शाम को गांव के लोग एक साथ मिलकर फाग गीत गाते हैं ये एक ऐसा समय होता जब पूरे बिहार के लोग ऊंच-नीच सब भुलाकर एक राग में एक साथ गीत गाते हैं ।
फगुआ का मतलब फागुन के त्योहार यानी होली से है। इस दौरान लोग फाग के गीत गाते हैं और इनकी धुनों पर जमकर डांस भी करते हैं। इसकी शुरुआत बसंत पंचमी से ही हो जाती है और होली के दिन तक लगातार फाग गाए जाते हैं।
बिहार के भागलपुर मुंगेर और भी इलाकों में फगुआ का काफी ज्यादा महत्व है। लोग इसे काफी उत्साह से मनाते हैं। यहां पूर्णिमा के दिन पहले धूल-मिट्टी से होली खेली जाती है, जिसके बाद लोग रंगों वाली होली खेलते हैं।
बिहार में होली की शुरुआत के लिए सबसे पहले कुल देवी-देवताओं को रंग चढ़ाया जाता है। साथ ही, उन्हें पुए का भोग भी लगाया जाता है। देव पूजन के बाद परिवार के सभी छोटे सदस्य अपने से बड़ों के पैरों पर रंग लगाते हैं और आशीर्वाद लेते हैं। वहीं, होली की रात संगीत कार्यक्रम आयोजित किया जाता है, जिसमें सभी लोग लोकगीतों पर जमकर झूमते हैं।
बिहार की कुर्ता फाड़ होली
बिहार में कुर्ता फाड़ होली भी खेली जाती है, जो विदेशों में भी काफी प्रसिद्ध है। लोग बताते हैं कि इस दिन के लिए खास तैयारी की जाती है। बाजार में स्पेशल कुर्ते बिकते हैं, जिनकी काफी डिमांड रहती है। यहां होलिका दहन की राख एक-दूसरे को लगाई जाती है, जिसे काफी शुभ माना जाता है। होली वाले दिन पहले गुलाल से सूखी होली खेली जाती है। इसके बाद पुरुष कुर्ता फाड़ होली खेलते हैं, और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालु यादव की कुर्ता फाड़ होली तो वर्ल्ड फेसम है।
बिहार के इस गांव में नहीं मनती होली...
होली पर नालंदा के 5 गांवों में नहीं जलते हैं चूल्हे, 51 साल से चली आ रही परंपराकहते हैं त्योहार अक्सर लोगों के बीच की दूरियों को मिटा देते हैं । वैसे तो होली का नाम लेते ही रंग गुलाल और हुड़दंग याद आता है, लेकिन 51 सालों से बिहार के नालंदा जिले के पांच गांव में होली मनाने की अलग परंपरा है। होली के दिन यहां न रंग उड़ता है न ही घरों में चूल्हे जलते है।
जानें क्या है परंपरा :-
पतुआना, बासवन बिगहा, ढीबरापर, नकटपुरा और डेढ़धारा समेत आस पास के गांव इन गांवों में होलिकादहन की शाम से 24 घंटे का अखंड कीर्तन होता है। धार्मिक अनुष्ठान की शुरुआत होने से पहले ही लोग घरों में मीठा भोजन तैयार कर रख लेते हैं। जब तक अखंड कीर्तन
का समापन नहीं होता है, तब तक घरों में चूल्हे जलाने और धुआं करना वर्जित रहता है। लोग नमक का भी सेवन नहीं करते हैं। भले ही होली के दिन सभी जगहों पर रंगों की बौछार होती है। लेकिन, इन पांच गांवों के लोग रंग-गुलाल उड़ाने की जगह 'हरे रामा हरे कृष्णा' का ही जाप करते हैं।
बिहार के पूर्णिया जिले से हुई थी होली की शुरुआत
मान्यता है कि होली के त्योहार को मनाने की शुरुआत पूर्णिया जिले से हुई थी, जो बिहार में ही आता है। कहा जाता है कि पूर्णिया जिले के बनमनखी प्रखंड के सिकलीगढ़ में आज भी वह स्थान है, जहां होलिका भक्त प्रह्लाद को लेकर अग्नि में बैठी थी। मान्यता है कि होलिका इसी स्थान पर अपने भाई हिरण्यकश्यप के कहने पर भक्त प्रह्लाद को गोद में लेकर जलती चिता पर बैठ गई थी। दावा किया जाता है कि पूर्णिया में ही वह खंभा भी मौजूद है, जहां भगवान विष्णु नरसिंह अवतार में प्रकट हुए थे।
इसके बाद उन्होंने हिरण्यकश्यप का वध किया था। जानकार बताते हैं कि सिकलीगढ़ में हिरण्यकश्यप का किला था। यहीं पर भक्त प्रह्ललाद रहते थे। स्थानीय बुजुर्गों की मानें तो पूर्णिया में आज भी उस काल के टीले मौजूद हैं।